Thursday, March 18, 2021

शिवरात्रि का सन्देश

शिवरात्रि के दिन मूलशंकर को सत्य ज्ञान का बोध हुआ था। इसीलिए इस दिवस को बोधोत्सव के नाम से मनाया जाता है। इसी दिन ऋषि को इस बात का ज्ञान हुआ था कि निराकार परमात्मा की मूर्ति नहीं बनाई जा सकती। आर्य जाति परमात्मा के सत्यस्वरूप को भूलकर पत्थरों को परमात्मा मानने लग गई थी और पत्थर के अन्दर ही परमात्मा के सम्पूर्ण गुणों का आभास देखने लग गई थी। ऋषि ने इसी शिवरात्रि के दिन सच्चे शिव की प्राप्ति का दृढ़ संकल्प कर लिया था और १४ वर्ष तक नर्मदा की तलैहटि से गंगास्त्रोत करते हुए ब्रम्हचर्य और तप से अपने जीवन को परिमार्जित करके, सैकड़ो प्रकार की विपदबाधाओं को झेलकर सच्चे परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त किया था। स्वामी दयानन्द के व्याख्यानों तथा ग्रन्थों के अध्ययन से स्पष्ट पता लगता है कि उनका भाव कितना कट्टर था। उन्होंने एक मिनट के लिए भी मूर्ति पूजकों से सुलह नहीं की। उनके जीवन का बहुत सा भाग ईश्वर पूजा के सिद्धान्तों के प्रचार तथा मूर्ति पूजा के खंडन में व्यतीत हुआ। उनके विचार में आर्य जाति की गिरावट का मुख्य कारण मूर्तिपूजा था। ऋषि का धर्म वेदों की दृढ़ चट्टान पर अवलम्बित था और वह एक परमात्म पूजा का धर्म था। कई प्रकार के प्रलोभनों तथा आपत्तियों के आने पर भी स्वामी दयानन्द अपने सिद्धान्त से विचलित नहीं हुए। इस्लाम भी मूर्ति पूजा का कट्टर विरोधी समझा जाता है। इसके प्रवर्त्तक हजरत मुहम्मद ने अरब के जाहिल लोगों के सामने एक परमात्मा की पूजा (तौहीद) का सिद्धान्त रखा और मूर्ति पूजा का खंडन किया। परन्तु जिस समय कुरैशी लोग सर्वथा मूर्ति पूजा छोड़ने के लिए बाधित हुए तो उन्होंने मुहम्मद साहब से प्रार्थना की कि उन्हें तीन दिवस का अवकाश दिया जावे और तीन दिन तक उन्हें मूर्तियों की पूजा करने की आज्ञा दे दी जाये। मुहम्मद साहब ने उनकी इस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया और उन्होंने तीन दिन तक मूर्ति की पूजा करने की आज्ञा दे दी। मुहम्मद को मूर्ति पूजा का कट्टर विरोधी समझा जाता है और कहा जाता है कि संसार में तौहीद का स्पष्ट शब्दों में प्रचार पहले पहले इन्होंने किया। परन्तु हम देखते हैं कि मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी मुहम्मद ने मूर्ति पूजकों से मूर्ति पूजा के विषय में सुलह की।

परन्तु स्वामी दयानन्द ने इस विषय में किसी से एक मिनट के लिए भी सुलह नहीं की। उदयपुर महाराज स्वामी जी के शिष्य थे। महाराज की स्वामी जी में अनन्य भक्ति और श्रद्धा थी। इन्होंने स्वामी जी को अपना गुरु बनाया था। एक बार की घटना है कि इन्होंने स्वामी जी से प्रार्थना की कि वे उदयपुर के राज मन्दिर की गद्दी के मालिक बन जावें और सारी आय से अपने धर्म प्रचार का कार्य करें परन्तु केवल मूर्ति पूजा का खंडन न करें। इस पर स्वामी जी महाराज से बहुत असन्तुष्ट हुए और उन्होंने उसको खूब डांटा। इस प्रकार कि अन्य भी कई घटनाएं स्वामी जी के जीवन में उपलब्ध होती हैं जिनके अध्ययन से पता चलता है कि कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण होने के समय से लेकर मृत्युपर्यन्त स्वामी ने एक मिनट के लिए भी मूर्ति-पूजा के साथ सुलहनामा नहीं किया। स्वामी जी के जीवन का यह एक मुख्य भाग था। शिवरात्रि या बोधोत्सव का यही संदेश है। परन्तु हमें दुःख से कहना पड़ता है कि आर्य समाज इस समय अपने उद्देश्य से विचलित हो रहा है। देश अन्दर जो लहरें चल रही हैं उनका आर्य समाज के प्रचार पर भी असर पड़ रहा है। उचित तो यह था कि आर्य समाज का प्रभाव ही देश की प्रत्येक लहर के अन्दर दिखाई देता परन्तु दुःख इस बात का है कि उल्टा आर्य समाज पर इनका असर हो रहा है। हिन्दू संगठन की लहर चली और आर्य समाज इसमें बह गया। इतना तो हम समझते हैं कि आर्य जाति की रक्षा करना आर्य समाज का कर्तव्य है परन्तु इसका यह तात्पर्य यह कि हिन्दू संगठन के नाम पर आर्य समाज अपने सिद्धान्तों की भी बलि दे दे। जब से हिन्दू संगठन की लहर चली है तब से आर्य समाज के अन्दर मूर्ति पूजा के खंडन करने का भाव ढीला हो गया है।

कई अन्य आर्य समाजी भाई यह समझते हैं कि यदि मूर्ति पूजा का खंडन किया जायेगा तो हिन्दू भाई अप्रसन्न हो जायेंगे। इसलिए हिन्दुओं को खुश करने हमारे भाई कई ऐसे कार्य कर बैठते हैं जो कि आर्य समाज की स्पिरीट के विरुद्ध है। हमने कई उपदेशकों को यह कहते सुना है कि ''हिन्दुओं के ३३ करोड़ देवी-देवता हैं फिर भी वे मुसलमानों की कबरों की पूजा करते हैं।'' जहां मूर्ति पूजा का सर्वथा खंडन करना चाहिए वहां हिन्दुओं को अपने देवी देवताओं की पूजा करने के लिए प्रेरित किया जाता है। वे भाई भूल जाते हैं कि जो व्यक्ति मूर्ति पूजा करता है उसका यह स्वभाव पड़ जाता है कि वह संसार भर की मूर्तियों की पूजा करे। यही कारण है कि बहुत से कब्र-परस्त मुसलमान भी हिन्दू ज्योतिषियों के पास आकर तावीज इत्यादि बन्धवाते हैं। इसलिए हमारा कर्त्तव्य तो यह है कि हम सर्वथा मूर्ति पूजा का खंडन करें न कि इसके साथ सुलह करें। हमें यह भी शोक से कहना पड़ता है कि हमारे कई नेता हिन्दुओं की मूर्ति स्थापना इत्यादि क्रियाओं में जाकर हिस्सा लेते हैं। ऐसी बातों में शरीक होना भी स्वामी जी की स्पिरिट और वैदिक सिद्धान्तों के प्रतिकूल आचरण है। हम यह देख रहे हैं कि आर्य समाजी अपने सिद्धान्तों से गिर रहे हैं और हिन्दू संगठन की लहर में पड़कर हम अपने सिद्धान्तों को कुर्बान कर रहे हैं। यदि सच्चे अर्थों में ऋषि बोध का दिन मनाना है तो हमारा कर्तव्य है कि हम किसी भी अवस्था में मूर्ति पूजा के साथ सुलह न करें और संसार से मूर्ति पूजा का सर्वथा अत्यन्ताभाव करके ऋषि के मिशन को पूरा करें। (माघ संवत १९८२ के आर्य उदधृत) - आचार्य रामदेव जी

On the day of Shivratri, Moolshankar realized real knowledge. That is why this day is celebrated as Bodhotsav. On this day, the sage realized that the idol of the formless God could not be made. The Aryan caste had forgotten the true nature of God and started considering the stones as divine and within the stone itself began to see the fullness of the divine qualities.

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